शाम को जब खेल के थक के घर आते थे .... तो अम्मा सबसे पहले "बकुआ" (सरसों और हल्दी की सिल बट्टे पर पीसकर ) रगड़ रगड़ के लगाती थी फिर जो मैल शरीर से निकलता था उसे पुडिया बनाकर देती और कहती की जाओ इसे होलिका में दाल आओ ... हम फिर निकल जाया करते होलिका के हुडदंग में वो पुडिया डालने और ... फिर वही जोगी रा स र र र र र र र र.....
बड़ी मुश्किल से रात गुजारी जाती थी ... और अगले दिन सुबह सुबह ही सबसे पहले अम्मा हमें पुराने कपडे देती और कडवा तेल देती और हम उसे पुरे शरीर पर लगाते जिससे कि रंग न चढ़े ... और वो होली वाली टोपी लगाकर दोस्तों की टोली के साथ निकल पड़ते जोगी रा स र र र र र र .....
क्या मस्ती थी ... उन दिनों की क्या मज़ा था उन दिनों का .... अब कहा होली ... अब तो बस हो...... ली.... न वो गुझिया रही .. न ही बड़े रहे ... न समोसे .. न रसगुल्ले .... अब तो रंग ही नहीं रहे होली में ....
अब कहाँ जोगी रा स र र र र र र र र..... कहने वाले रहे ....
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