शनिवार, 11 दिसंबर 2010

अंतर्द्वंद

दिमाग के अंतरद्वंद
के बीच
नसों की सरसराहट
स्पस्ट सुनाई देती है
जैसे लगता है
वह आदमी भोतिकता, अपनी सोम्यता
को न्युछावर कर रहा हो
इन्ही सब के बीच
एक वेदना भी है, दर्द भी है
वह चीत्कार कर उठती है
उसे भुलाना चाहती है
मगर ऐसा हो तब न ?
वह चाहकर भी
नहीं भूल पाती
दर्द उसका दामन
मरते दम तक नहीं छोड़ पाता
और वह निह्स्प्रान
कफ़न से भी ठंडा बना
बैठा है
शायद कोई उसे सुने
उसकी तरफ देखे, मगर जिन्दगी
यूँ ही कट जाती है
दिमाग का अंतरद्वंद
लगातार चलता रहता है
और बस चलता रहता है ..........

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें